लेख
17-Dec-2025
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हमने बहुत तरक्की कर ली। चांद पर भी पहुंच गए। गली गली मंदिर - मस्जिद - गिरिजाघर खड़े कर लिए। करोड़ों करोड़ देवताओं के बीच रहते हैं। विकास के दावे इतने हैं कि दावेदार कन्फ्यूज्ड हैं कि और कितने दावे करें! इधर बिहार के सासाराम जिले में आठ वर्षीय बच्चा भूख मिटाने के लिए एक घर में घुस गया। गांव के मनचलों ने उसे चोर करार किया और थाने ले गये। थानेदार और ग्रामीणों में थोड़ी दया बाकी थी। बच्चे को समझा बुझाकर घर भेज दिया। घर में उसके चाचा ने गर्म लोहे से बच्चे के हाथ- पैर और जीभ - चबड़े जला दिए। बच्चे की चीखों से गांव की गलियों तक चीत्कार करने लगी, लेकिन प्रशासन अतिक्रमण पर बुल्डोजर चला रहा है। बात यहीं नहीं रुकी। मुजफ्फरपुर के सकरा थाना अंतर्गत नवलपुर मिशरौलिया गांव में आर्थिक तंगी के कारण अमरनाथ राम अपने पांच बच्चों के साथ फंदे से झूल गए। अमरनाथ और तीन बेटियों की मृत्यु हो गई। दो बेटे बच गए। अमरनाथ दस साल से सरकारी आवास के लिए कार्यालय का चक्कर काट रहा था। सरकार तो विकास कर रही है। पांच किलो अनाज से भी काम नहीं चल रहा। दरअसल सरकार समझने में असमर्थ है कि राज्य के विकास में काम चाहिए। भ्रष्टाचार मुक्त सरकारी दफ्तर चाहिए। सम्मान से जीने का संसाधन चाहिए। आठ वर्ष के बच्चे के जीभ - जबड़े गर्म सलाखों से दागे जाते हैं। पेट को अन्न चाहिए। तुलसीदास के माता-पिता भी बचपन में गुजर गये थे। भीख मांग कर जीते थे। उनके लिए भिक्षा मांगना गलत नहीं था। लेकिन इस बच्चे के लिए कौन सा रास्ता है? वे तीन बेटियां जिसने दुनिया देखी नहीं, पिता ने फंदे से झुला दिया। क्या इस इलाके में कोई सरकारी कार्यालय नहीं है, मुखिया नहीं है, वार्ड पार्षद नहीं है, विधायक नहीं है या जिलाधिकारी, सांसद नहीं है? इन लोगों का काम क्या है? एक ऐसा डेटा नहीं बना सकते कि अपने गांव में किसके पास क्या है और किन चीजों की जरूरत है? सभी लिप्त और दायित्वहीन हैं। उनका काम क्या है, उन्हें कौन सी जिम्मेदारी मिली है और अगर जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करते हैं तो उन्हें क्या सजा मिलेगी, इसमें किसी तरह की पारदर्शिता नहीं है। मुखिया टकटकी लगा कर सरकारी आवंटन की ओर देख रहा है। उस आवंटन पर गिद्ध की तरह सरकारी प्रतिनिधि और जन प्रतिनिधि लगे हैं। पू्र्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि एक रुपए में दस पैसा गांव पहुंचता है। शेष बीच में सरकारी डकैती होती है। सवाल है कि ऐसा लोकतंत्र क्यों है कि पहले टैक्स आदि के माध्यम से गांव घर का पैसा केंद्र में जमा करो और फिर उसे गांव भेजो। ऐसा इंतजाम क्यों नहीं होता कि गांव का पैसा गांव में रहे और गांव ही अपना बजट बनाये। लोकतंत्र में केंद्रीकरण लोकतंत्र की ही हत्या करता है। हम आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक शक्तियों को एकत्रित कर रहे हैं। हम बांट नहीं रहे, जमा कर रहे। नतीजा है कि जनता कटोरा लेकर खड़ी है। उनकी हैसियत महज वोट की है और वह वोट भी बाजार में बिक रहा है या छीना जा रहा है। दुष्यंत कुमार ने लिखा था- “ कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए/ कहां तो चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। “ और वे आगे लिखते हैं -”न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे/ ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए। “ लोकतंत्र का अंधा सफर जारी है। देश को लोकतंत्र का एक रौशन सफर चाहिए जिसमें कम से कम भूख से बच्चे बिलबिलायें नहीं और पिता को फांसी पर न झूलना पड़े। (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 17 ‎दिसम्बर /2025