लोकतंत्र केवल जीत का उत्सव नहीं होता। वह हार के आत्ममंथन, विवेक के परीक्षण और चरित्र की कसौटी का भी नाम है। चुनावी राजनीति में हार को प्रायः पराजय के रूप में देखा जाता है, किंतु जब यह हार सत्य, साहस और ईमानदार संघर्ष के साथ आती है, तब वह केवल परिणाम नहीं रहती, बल्कि एक वैचारिक विजय में रूपांतरित हो जाती है। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के वर्ष 2025 के चुनाव में कार्यकारिणी सदस्य पद पर लगातार दूसरी बार मिली पराजय मेरे लिए भी ऐसी ही एक “हार की जीत” है। यह आलेख किसी व्यक्तिगत पीड़ा की अभिव्यक्ति भर नहीं है। यह उस संस्थागत यथार्थ का दस्तावेज़ है, जहाँ लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ तो विद्यमान हैं, किंतु सत्ता का हस्तांतरण लगभग असंभव होता जा रहा है। यह कथा एक स्वतंत्र पत्रकार की है, जो बिना किसी पैनल, बिना संसाधन, बिना सत्ता-समर्थन के, केवल विचार, विवेक और आत्मबल के सहारे मैदान में उतरा। परिणाम पराजय का रहा, पर आत्मा ने हार स्वीकार नहीं की।प्रेस क्लब ऑफ इंडिया कभी स्वतंत्र पत्रकारिता की चेतना, संवाद और असहमति का जीवंत प्रतीक रहा है। यह वह मंच था जहाँ विचार टकराते थे, प्रश्न उठते थे और सत्ता से निर्भीक संवाद होता था। किंतु बीते वर्षों में यह संस्था धीरे-धीरे एक सीमित दायरे में सिमटती दिखाई देने लगी है। लगातार ग्यारह वर्षों से एक ही सत्तारूढ़ पैनल का सत्ता में बने रहना किसी संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि एक सुसंगठित व्यवस्था का संकेत है। चुनाव होते हैं, मतदान होता है, लेकिन सत्ता का चरित्र लगभग अपरिवर्तित रहता है। यह स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक संस्था के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इस पूरे परिदृश्य में विपक्ष लगभग अनुपस्थित दिखाई देता है। न कोई सशक्त वैचारिक मंच, न साझा एजेंडा,न दीर्घकालिक रणनीति। स्वतंत्र उम्मीदवार बिखरे हुए हैं, संसाधनहीन हैं और आपसी समन्वय के अभाव में एक-दूसरे के पूरक बनने के बजाय प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं। परिणामस्वरूप वोटों का विभाजन होता है और सत्तारूढ़ पैनल पहले से अधिक मजबूती के साथ लौट आता है। इस अर्थ में यह हार किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि सामूहिक रणनीतिक विफलता की भी कहानी है।वर्ष 2025 के चुनाव में कुल 1268 मत पड़े,जिनमें से 1227 मत वैध घोषित किए गए। इस व्यापक मतदान के बीच मुझे केवल 291 मत प्राप्त हुए। काग़ज़ पर यह संख्या छोटी प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरे लिए यह मात्र एक अंक नहीं थी। वे 291 मत 291 विवेकपूर्ण निर्णय थे, 291 चेहरे थे, 291 ऐसी आवाज़ें थीं जिन्होंने भय, प्रलोभन और सत्ता के दबाव से ऊपर उठकर स्वतंत्र सोच का साथ दिया। जब परिणाम लगभग पूर्वनिर्धारित हों, तब 291 मत भी एक प्रतिरोध का स्वर बन जाते हैं। यह मेरी लगातार दूसरी पराजय है। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि ऐसा क्यों हुआ। उत्तर सरल नहीं, किंतु स्पष्ट अवश्य है। पहला कारण यह कि मैं किसी पैनल का हिस्सा नहीं था। दूसरा यह कि मेरे पास न तो संस्थागत संसाधन थे और न ही संगठित प्रचार तंत्र। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह कि मैंने समझौतावादी राजनीति को अस्वीकार किया। मैंने वादों और सौदों की राजनीति नहीं की। मैंने केवल मुद्दों की बात की—पत्रकारों की सुरक्षा,स्वास्थ्य सुविधाएँ, आवास,स्वतंत्र पत्रकारों की पहचान और प्रेस क्लब को सत्ता-केंद्र के बजाय संवाद-केंद्र बनाने की आवश्यकता।दुर्भाग्यवश आज के समय में मुद्दों की राजनीति अक्सर प्रबंधन और नेटवर्क की राजनीति से हार जाती है।यह स्वीकार करना होगा कि सत्तारूढ़ पैनल संगठित है, अनुशासित है और वर्षों से बने प्रभावी नेटवर्क का लाभ उठाता है। क्लब की व्यवस्थाएँ, संसाधन और निर्णय-प्रक्रियाएँ उसी के इर्द-गिर्द केंद्रित हो चुकी हैं। इसके विपरीत स्वतंत्र प्रत्याशी केवल अपनी नैतिक पूंजी के सहारे खड़े दिखाई देते हैं, जो चुनावी गणित में अक्सर अपर्याप्त सिद्ध होती है।चुनाव परिणाम के बाद का क्षण किसी भी प्रत्याशी के लिए कठिन होता है। वर्षों का अनुभव, लेखनी की धार और ईमानदार संघर्ष जैसे क्षणभर में अप्रासंगिक प्रतीत होने लगते हैं। मन में अनेक प्रश्न उठते हैं—क्या सच बोलना अब भी मूल्य है? क्या अकेले खड़े होना मूर्खता है? क्या स्वतंत्रता की कीमत बहुत अधिक है? लेकिन जब यह प्रश्न अंतरात्मा के दरबार में जाते हैं, तो उत्तर एक ही मिलता है—यदि जीत के लिए आत्मा गिरवी रखनी पड़े, तो ऐसी जीत भी हार से कम नहीं होती। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के ऐतिहासिक परिसर में परिणाम घोषित होने के बाद का दृश्य आज भी स्मृति में अंकित है।चारों ओर शोर था,विजयी पैनल के समर्थकों के चेहरे पर मुस्कान और आत्म विश्वास था। उसी भीड़ में मैं अकेला, शांत और विचारों में डूबा खड़ा था। कारण स्पष्ट था—मैं जीत नहीं पाया था। किंतु उस क्षण भीतर कोई टूटन नहीं थी।बल्कि एक विचित्र शांति थी,जो केवल तब आती है जब व्यक्ति जानता हो कि उसने अपने विवेक से समझौता नहीं किया। कई साथियों ने बाद में आकर कहा—“हमें पता था आप जीतेंगे नहीं, फिर भी हमने आपको वोट दिया। यह वाक्य मेरे लिए किसी भी पद या जीत से बड़ा था।यह इस बात का प्रमाण था कि क्लब के भीतर अभी भी ऐसी चेतना शेष है,जो अवसरवाद से ऊपर उठकर मूल्य को चुनती है।यही कारण है कि यह हार मुझे भारी नहीं लगी।यह ईमानदार थी,खरी थी और किसी सौदे का परिणाम नहीं थी। उस रात नींद नहीं आई।एकांत में प्रश्नों की लंबी शृंखला थी। पत्रकारिता के मूल्यों पर,स्वतंत्रता के भविष्य पर और संस्थागत संरचनाओं की जटिलताओं पर विचार चलता रहा।सुबह जब सूरज की पहली किरण आई,तो मन में एक स्पष्टता भी आई।मैंने जो किया, वह अपने विवेक के अनुसार किया। मैंने हार स्वीकार की है,लेकिन आत्मसमर्पण नहीं। यह चुनाव यह भी उजागर करता है कि पत्रकारिता के भीतर भी सत्ता संरचनाएँ कितनी गहराई तक जड़ जमा चुकी हैं।प्रेस क्लब ऑफ इंडिया,जो संवाद और बहस का मंच होना चाहिए,कहीं-न-कहीं सुविधा, प्रभाव और प्रबंधन का केंद्र बनता जा रहा है। यह कहना असहज हो सकता है,किंतु सच यही है कि हमें सत्ता से सवाल पूछने की क्षमता केवल बाहर नहीं,अपने संस्थानों के भीतर भी विकसित करनी होगी। यह मेरी अंतिम लड़ाई नहीं है।यह केवल एक पड़ाव है।भविष्य में यदि फिर मैदान में उतरूँगा,तो और व्यापक संवाद,अधिक संगठित वैचारिक मंच और दीर्घकालिक दृष्टि के साथ उतरूँगा।स्वतंत्र पत्रकारों को केवल चुनाव के समय नहीं,पूरे वर्ष जोड़ने की आवश्यकता है।परिवर्तन क्षणिक नहीं होते,वे निरंतर प्रयास से आकार लेते हैं। यह हार मुझे छोटा नहीं करती। यह मुझे और जिम्मेदार बनाती है।जब तक लिखने की क्षमता है,तब तक सवाल उठाने का दायित्व है। जब तक विवेक जीवित है,तब तक स्वतंत्र पत्रकारिता की लौ जलती रहेगी।शायद यही मेरी वास्तविक जीत है। मै अपने उन मीडिया मित्रों मतदाताओं व अपने समर्थको का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे इस चुनाव अपना मत के साथ बहुमूल्य समर्थन व योगदान दिया । अंततः जीवन में वही हार सबसे बड़ी जीत होती है, जो आपको पराजय के बाद भी सच्चा बनाए रखे। ईएमएस/17/10/2025