*अरावली खामोश होकर सवाल पूछ रहा है - -अगर मेरी ऊँचाई 100 मीटर से कम है,तो क्या मेरी ज़रूरत भी कम हो गई?,मैं ऊँचा नहीं,लेकिन अमर हूँ।मैं बूढ़ा हूँ,पर कमजोर नहीं।जो पहाड़ करोड़ों सालों से खड़ा है,वो आज मशीनों से डर काँप रहा है।अगर आज तुमने हमको खो दिया तो आने वाली,पीढ़ियाँ तुमसें पूछेंगी तुम्हें बचाने वाला कोई नही था* आदिकाल में जब स्वयं श्रृजनकर्ता द्वारा धरती का श्रजन की,जब इंसान का नामो-निशान तक नहीं था,तब अरावली पर्वत खड़ा हुआ...कहा जाता है,आज से लगभग करोड़ों वर्षों पहले,धरती की कोख फटी, और अरावली जन्म हुआ था।यह कोई साधारण पहाड़ नहीं था,यह धरती की ढाल था।समय का चक्र निरंतर घुमते रहें,राजा महाराजे आए,साम्राज्य मिटे,रेगिस्तान फैलने को आतुर हुआ,लेकिन समाने अरावली चट्टान बनकर खड़ा रहा।इसने आँधियों को रोका,बाढ़ को थामा,ज़मीन के नीचे पानी को ज़िंदा रखा।अरावली पर संकट के काले बादल मंडरा रहे है।अरावली खामोश होकर सवाल पूछ रहा है - -अगर मेरी ऊँचाई 100 मीटर से कम है,तो क्या मेरी ज़रूरत भी कम हो गई?,मैं ऊँचा नहीं,लेकिन अमर हूँ।मैं बूढ़ा हूँ,पर कमजोर नहीं।जो पहाड़ करोड़ों सालों से खड़ा है,वो आज मशीनों से डर काँप रहा है।अगर आज तुमने हमको खो दिया तो आने वाली,पीढ़ियाँ तुमसें पूछेंगी तुम्हें बचाने वाला कोई नही था,अरावली पर्वतमाला केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं है,बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन प्राकृतिक विरासतों में से एक है।आज जब विकास और निर्माण के नाम पर अरावली की पहाड़ियों को काटने,समतल करने और “कम ऊँचाई” के तर्क से बाहर करने की कोशिशें हो रही हैं।भूवैज्ञानिक दृष्टि से अरावली पर्वतमाला का निर्माण आज से लगभग 150 से 200 करोड़ वर्ष पहले हुआ माना जाता है।यह काल पृथ्वी के इतिहास का वह चरण था जब उसकी पपड़ी स्थिर हो रही थी और महाद्वीप आकार ले रहे थे।अरावली का संबंध प्रोटेरोज़ोइक युग से जोड़ा जाता है,जब भारतीय भू-प्लेट स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में थी।यह पर्वतमाला प्राचीन विवर्तनिक गतिविधियों,चट्टानों के उत्थान और लंबे क्षरण की प्रक्रिया का परिणाम है।यही कारण है कि आज अरावली ऊँची नहीं दिखती—करोड़ों वर्षों के प्राकृतिक क्षरण ने इसे अपेक्षाकृत नीचा कर दिया है। लेकिन इसकी उम्र और संरचना ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है।हिमालय की तुलना में अरावली कहीं अधिक पुरानी है।हिमालय का निर्माण लगभग 5–6 करोड़ वर्ष पहले हुआ,जबकि अरावली उससे कई गुना अधिक प्राचीन है।इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि अरावली केवल वर्तमान का नहीं,बल्कि पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास का जीवित प्रमाण है।इतनी प्राचीन संरचना का नष्ट होना केवल पर्यावरणीय क्षति नहीं,बल्कि वैश्विक वैज्ञानिक विरासत का नुकसान भी है। इतिहास की दृष्टि से भी अरावली का महत्व कम नहीं रहा।प्राचीनकाल से ही अरावली क्षेत्र मानव बसावट के लिए अनुकूल रहा है।इसके आस पास जल,वन और खनिज संसाधनों की उपलब्धता ने सभ्यताओं को पनपने में मदद की।राजस्थान के मेवाड़,मारवाड़ और आसपास के क्षेत्रों में विकसित सामाजिक और राजनीतिक संरचनाओं में अरावली की भूमिका केंद्रीय रही है।इस पर्वतमाला ने न केवल प्राकृतिक सीमाओं का काम किया,बल्कि क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने में भी योगदान दिया मध्यकालीन भारत में अरावली की सामरिक भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण रही।कई राजपूत राज्यों ने अपनी सुरक्षा और रणनीतिक लाभ के लिए अरावली की पहाड़ियों का उपयोग किया।किले, दुर्ग और बस्तियाँ इसी पर्वतमाला के सहारे विकसित हुईं।अरावली ने आक्रमणों से रक्षा,जल स्रोतों के संरक्षण और कृषि संतुलन में ऐतिहासिक योगदान दिया।यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अरावली के बिना राजस्थान का सामाजिक और राजनीतिक इतिहास वैसा नहीं होता जैसा हम आज जानते हैं।आधुनिक संदर्भ में अरावली का महत्व और भी व्यापक हो जाता है।यह पर्वतमाला थार मरुस्थल और उत्तर भारत के घनी आबादी वाले क्षेत्रों के बीच एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करती है। वैज्ञानिक अध्ययनों और सरकारी रिपोर्टों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अरावली मरुस्थलीकरण की गति को नियंत्रित करने में निर्णायक भूमिका निभाती है। यदि यह पर्वतमाला कमजोर होती है,तो रेगिस्तान का विस्तार केवल राजस्थान तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक इसके प्रभाव दिखाई देंगे।जल संरक्षण के संदर्भ में अरावली की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।यह क्षेत्र वर्षा जल को रोककर उसे धीरे-धीरे भूमि में समाहित करने में सहायक होता है,जिससे भूजल पुनर्भरण संभव होता है।नीति आयोग और केंद्रीय जल आयोग सहित कई संस्थाओं ने उत्तर-पश्चिम भारत में जल संकट के लिए प्राकृतिक जल-संरचनाओं के क्षरण को जिम्मेदार ठहराया है। अरावली का विनाश इसी संकट को और गहरा करेगा।दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र आज जिस जल संकट,हीटवेव और वायु प्रदूषण से जूझ रहा है, उसके पीछे अरावली के क्षरण की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।अरावली क्षेत्र की वनस्पति धूल और गर्म हवाओं को रोकने में सहायक होती है।इसके जंगल प्राकृतिक कार्बन सिंक की तरह कार्य करते हैं। इनका नष्ट होना सीधे तौर पर वायु गुणवत्ता और तापमान संतुलन को प्रभावित करता है।इसी कारण सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT)ने अपने कई निर्णयों में अरावली के संरक्षण पर ज़ोर दिया है।सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि पर्यावरण संरक्षण संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार से जुड़ा विषय है।अदालतों ने यह भी माना है कि अरावली में अनियंत्रित खनन और निर्माण गतिविधियाँ न केवल पर्यावरणीय क्षति पहुँचाती हैं,बल्कि मानव जीवन और स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने अपने आदेशों में बार-बार कहा है कि अरावली की पर्यावरणीय उपयोगिता उसकी ऊँचाई से नहीं, बल्कि उसकी पारिस्थितिक भूमिका से तय होती है।इसके बावजूद हाल के वर्षों में नीतिगत स्तर पर यह तर्क उभर रहा है कि 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों को पर्यावरणीय संरक्षण की आवश्यकता नहीं है।यह तर्क न केवल वैज्ञानिक रूप से गलत है, बल्कि न्यायिक और ऐतिहासिक समझ के भी विपरीत है।नीति आयोग की रिपोर्टें भी इस संदर्भ में गंभीर चेतावनी देती हैं।आयोग ने स्पष्ट किया है कि भारत के सामने जल संकट और जलवायु परिवर्तन सबसे बड़े दीर्घकालिक खतरे हैं।उत्तर-पश्चिम भारत में इस संकट को नियंत्रित करने के लिए अरावली जैसी प्राकृतिक संरचनाओं का संरक्षण अनिवार्य है।इसके बावजूद यदि अल्पकालिक आर्थिक लाभ के लिए इन संरचनाओं को कमजोर किया जाता है, तो यह भविष्य के साथ अन्याय होगा। विकास की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता,लेकिन विकास का अर्थ प्रकृति का विनाश नहीं हो सकता।सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णयों में “सतत विकास” के सिद्धांत को बार-बार दोहराया है। इसका अर्थ स्पष्ट है—विकास ऐसा हो जो वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करे,बिना भविष्य की पीढ़ियों की संभावनाओं को नष्ट किए।अरावली का विनाश इस सिद्धांत का सीधा उल्लंघन है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अरावली स्वयं अपना पक्ष रखने में सक्षम नहीं है।वह न तो अदालत में याचिका दायर कर सकती है,न नीति आयोग की बैठकों में अपनी भूमिका समझा सकती है।उसकी रक्षा का दायित्व राज्य,संस्थाओं और समाज पर है।यदि आज निर्णय केवल नक्शों,फाइलों और तात्कालिक लाभ के आधार पर लिए जाएंगे,तो उनका परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।अंततः प्रश्न अरावली के अस्तित्व का नहीं,बल्कि हमारी दूरदर्शिता का है। क्या हम उस पर्वतमाला को नष्ट करने का अधिकार रखते हैं,जिसने करोड़ों वर्षों तक भूगर्भीय परिवर्तन झेले,सभ्यताओं को संरक्षण दिया और आज भी जीवन को संभव बनाए हुए है? यदि इस प्रश्न का उत्तर ईमानदारी से खोजा जाए,तो अरावली के संरक्षण के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।अरावली को बचाना किसी भावनात्मक अपील का विषय नहीं है।यह वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और संवैधानिक आवश्यकता है।यदि आज इस दिशा में ठोस और सख़्त निर्णय नहीं लिए गए,तो भविष्य में जल संकट, मरुस्थलीकरण और जलवायु आपदाओं के लिए कोई भी नीति या अदालत जिम्मेदारी से नहीं बच पाएगी। ईएमएस/25/12/2025