भारतीय परिवारों के घरों में जमा लगभग 35,000 टन सोने के भंडार को लेकर एक बार फिर सरकारी गलियारों में बहस तेज हो गई है। आभूषणों और अन्य रूपों में मौजूद इस सोने की अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनुमानित कीमत करीब 5 ट्रिलियन डॉलर, यानी लगभग 415 लाख करोड़ रुपये बताई जा रही है। यह आंकड़ा दुनिया के कई देशों के केंद्रीय बैंकों के स्वर्ण भंडार से भी अधिक है। ऐसे में भारत सरकार और उसके नीति सलाहकारों की नजर इस विशाल संपदा पर पड़ना स्वाभाविक है। सवाल यह है, कि क्या यह सोना वास्तव में “डेड मनी” है, या भारतीय समाज की आर्थिक और सामाजिक रीढ़ है? सरकार से जुड़े कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि घरों में पड़ा सोना यदि औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जाए, तो इससे कई फायदे हो सकते हैं। प्रस्तावित विचारों में प्रत्येक परिवार के लिए सोने की अनिवार्य घोषणा, एक सीमा से अधिक सोने पर टैक्स, और मूल्य वृद्धि पर 30 प्रतिशत तक आयकर लगाने जैसे सुझाव शामिल हैं। सरकार को यह सुझाव भी दिया गया है, कि गोल्ड फानिटाइजेशन स्कीम लाकर गोल्ड लीजिंग को अनुमति दी जाए। घरों में जमा सोने और आभूषणों को बैंक में जमा करके 2 से 5 फीसदी का रिटर्न जमा करने वालों को दिया जाए। इसका फायदा भारत की जीडीपी को बढ़ाने में मिलेगा। वहीं डेड सोने से आय का विकल्प आम जनता को मिलेगा। काले धन के रूप में जमा सोने के लिए माफी योजना लाने की बात भी सामने आई है। तर्क दिया जा रहा है कि यदि यह सोना बैंकिंग और सरकारी प्रणाली में आता है, तो सरकार का राजस्व बढ़ेगा, रिजर्व बैंक की बैलेंस शीट मजबूत होगी, विदेशी मुद्रा भंडार को सहारा मिलेगा और सरकार की कर्ज पर निर्भरता कम होगी। इसके साथ ही बैंकों की ऋण देने की क्षमता बढ़ेगी, जिससे आर्थिक विकास को गति मिलेगी। आर्थिक दृष्टि से देखें, तो यह तर्क पूरी तरह निराधार नहीं हैं। भारत जैसे विकासशील देश के लिए घरेलू संसाधनों का बेहतर उपयोग आवश्यक है। वैश्विक स्तर पर मजबूत स्थिति, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से सस्ते कर्ज की संभावना और औद्योगिक निवेश को बढ़ावा—ये सभी सरकार के लिए आकर्षक लक्ष्य हैं। अर्थव्यवस्था केवल आंकड़ों और बैलेंस शीट से नहीं चलती, वह समाज की संवेदनाओं और परंपराओं से भी जुड़ी होती है। यहीं पर इस प्रस्ताव का सबसे बड़ा खतरा सामने आता है। भारतीय परिवारों के लिए सोना महज निवेश का साधन नहीं है, बल्कि सामाजिक सुरक्षा का आधार है। शादी-विवाह, चिकित्सा आपातकाल, बच्चों की शिक्षा या किसी भी संकट के समय यही सोना अंतिम सहारा बनता है। विशेष रूप से महिलाओं के लिए आभूषण “स्त्री धन” माना जाता है, जो उन्हें आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है। इसके तार भारतीय बचत की परंपरा से जुड़ते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिले ये आभूषण भावनात्मक रूप से भी परिवारों से जुड़े होते हैं। ऐसे में उन पर टैक्स लगाना या अनिवार्य घोषणा करना कई लोगों को अन्यायपूर्ण प्रतीत होगा। आलोचकों का कहना है कि यदि किसी निम्न या मध्यम वर्गीय परिवार के पास 100 से 150 ग्राम सोना है, जिसकी वर्तमान कीमत 12 से 20 लाख रुपये तक हो सकती है, उस पर टैक्स लगाना व्यावहारिक नहीं होगा। इससे न केवल मध्यम और निम्न वर्ग की आर्थिक स्थिति पर दबाव पड़ेगा, बल्कि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्रभावित हो सकती है। टैक्स चुकाने के लिए लोगों को कर्ज लेना पड़ सकता है, जो उनकी आर्थिक असुरक्षा को और बढ़ाएगा। इसके अलावा, सोने की अनिवार्य घोषणा और टैक्स जैसे कदमों से व्यापक जनविरोध की आशंका भी है। भावनात्मक जुड़ाव, पारिवारिक स्मृतियां और सांस्कृतिक मूल्य—इन सबको नजरअंदाज कर बनाया गया कोई भी कानून सामाजिक असंतोष को जन्म दे सकता है। इतिहास गवाह है कि जब भी सरकार ने लोगों की निजी संपत्ति पर सीधा हस्तक्षेप किया है, तो उसे तीखी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ी है। 1967 में तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई के कायर्काल में जमाखोरी, कालाबाजारी रोकने, उत्पादन एवं व्यापार बढ़ाने के लिये गोल्ड कंट्रोल 1967 लागू किया गया था। इससे सोने की तस्करी तथा अवैध कारोबार बढ़ा। देश की अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा था। फिलहाल सरकार की ओर से सोने पर टैक्स या अनिवार्य घोषणा को लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन चल रही चर्चाएं संकेत देती हैं, कि वर्ष 2026-27 के बजट में इस दिशा में कोई प्रस्ताव सामने आ सकता है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार संतुलित दृष्टिकोण अपनाए। घरों में जमा सोने को अर्थव्यवस्था में लाने के लिए स्वैच्छिक, प्रोत्साहन-आधारित और भरोसेमंद योजनाएं बनाई जाएं, न कि दंडात्मक कानून। तभी यह सोना देश की आर्थिक ताकत बन पाएगा, वरना यह सरकार और सामाजिक टकराव का कारण भी बन सकता है। ईएमएस / 25 दिसम्बर 25