- बढ़ते वन अपराध, अतिक्रमण, शिकार और अवैध कटाई पर अंकुश लगाने के लिए समितियों का सक्रिय और सशक्त होना अनिवार्य - सोशल ऑडिट पर डीएफओ में असंतोष - हॉफ ने अफसरों को दिए सख्त निर्देश भोपाल (ईएमएस)। मध्यप्रदेश में वन प्रबंधन और वन्यजीव सुरक्षा की जमीनी हकीकत पर बड़ा सवाल खड़ा करते हुए वी.एन. अंबाड़े ने स्पष्ट कहा है कि संयुक्त वन प्रबंधन समितियों (जेएफएम) के बिना प्रभावी वन संरक्षण संभव नहीं है। प्रदेश में वर्तमान में करीब 15 हजार 800 जेएफएम समितियां गठित हैं, जिनमें से 8 से 10 हजार समितियां निष्क्रिय पड़ी हुई हैं। हॉफ अंबाड़े का मानना है कि बढ़ते वन अपराध, अतिक्रमण, शिकार और अवैध कटाई की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए जेएफएम समितियों को पुनः सक्रिय और सशक्त करना अनिवार्य है। इसी उद्देश्य से वन बल प्रमुख ने मैदान से लेकर मुख्यालय में पदस्थ अधिकारियों के लिए दो अलग-अलग परिपत्र (सर्कुलर) जारी किए हैं, ताकि समुदाय आधारित वन प्रबंधन को फिर से मजबूती दी जा सके। मैदानी दौरों में ग्रामवासियों से संवाद अनिवार्य हॉफ अंबाड़े ने निर्देश दिए हैं कि सभी अधिकारी अपने क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान संबंधित जेएफएम समितियों और स्थानीय ग्रामवासियों से अनिवार्य रूप से संवाद करें। इस संवाद का उद्देश्य जमीनी समस्याओं को समझना, वन एवं वन्यजीव संरक्षण में समुदाय की भागीदारी को सुदृढ़ करना और जेएफएम की कार्यप्रणाली की समीक्षा करना होगा। साथ ही, ग्रामीणों को वनों में अवैध गतिविधियों की सूचना देने के लिए प्रभावी सूचना तंत्र विकसित करने के लिए प्रेरित किया जाएगा। उन्होंने यह भी निर्देशित किया कि मुख्य वन संरक्षक और वनमंडलाधिकारी (डीएफओ) यह सुनिश्चित करें कि उनके अधीनस्थ अधिकारी और फील्ड स्टाफ भी अपने दौरों के दौरान इस तरह का संवाद करें। किए गए संवाद का संक्षिप्त विवरण, प्रमुख समस्याएं और सुझाव वनमंडल स्तर की नियमित बैठकों में समीक्षा के लिए प्रस्तुत किए जाएं। पौधा प्रजातियों का चयन जेएफएम की सहमति से दूसरे परिपत्र में हॉफ अंबाड़े ने क्षतिपूर्ति वनीकरण से जुड़े कार्यों को अधिक टिकाऊ और समुदाय-उन्मुख बनाने पर जोर दिया है। उन्होंने निर्देश दिए हैं कि पौधा प्रजातियों का चयन जेएफएम समितियों की सहमति से किया जाए। इसके तहत केवल वन प्रजातियों तक सीमित न रहकर बांस, आंवला, महुआ, अचार, औषधीय पौधे, लघु वनोपज जैसी ऐसी प्रजातियों को प्राथमिकता देने को कहा गया है, जो स्थानीय ग्रामीणों की आजीविका बढ़ाने में सहायक हों। इससे वन संरक्षण के साथ-साथ ग्रामीणों का आर्थिक सशक्तिकरण भी संभव होगा। सोशल ऑडिट पर डीएफओ में असंतोष हालांकि, हॉफ अंबाड़े के एक अन्य निर्देश को लेकर विभाग के भीतर असंतोष भी उभरकर सामने आया है। मजदूरी और अन्य कार्यों के सत्यापन के लिए जिला कलेक्टर और जिला पंचायत सीईओ के समन्वय से सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) कराने के निर्देश का प्रदेश के करीब 80 प्रतिशत डीएफओ दबी जुबान से विरोध कर रहे हैं। वनमंडलाधिकारियों का तर्क है कि वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन (एपीएआर) को लेकर पहले ही लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी गई है और अब सोशल ऑडिट के लिए प्रशासनिक अधिकारियों के चक्कर लगाना पड़ेगा। कई डीएफओ ने हॉफ से इस निर्देश पर पुनर्विचार कर संशोधित परिपत्र जारी करने का आग्रह किया है। क्रियान्वयन को लेकर चुनौती वन विभाग के भीतर यह बहस अब यह संकेत दे रही है कि सामुदायिक सहभागिता और पारदर्शिता को लेकर सरकार और शीर्ष वन प्रबंधन सख्त रुख अपना रहा है, जबकि मैदानी स्तर पर इसके क्रियान्वयन को लेकर चुनौतियां बनी हुई हैं।