कक्षा में किताबें खुली हैं, बोर्ड पर सूत्र चमक रहे हैं, स्क्रीन पर स्लाइड बदल रही है,पर बच्चे का मन कहीं और अटका है। होमवर्क पूरा है, यूनिफॉर्म सलीके में है, चेहरे पर अभ्यास की हुई मुस्कान भी है, फिर भी भीतर एक अदृश्य बोझ हर पल भारी होता जा रहा है। आज की शिक्षा व्यवस्था में यह दृश्य असामान्य नहीं रहा। यह उस पीढ़ी की चुप्पी है जो बोलना चाहती है, पर समय, अपेक्षाओं और तुलना के शोर में उसकी आवाज़ दब जाती है। द स्टूडेंट स्ट्रेस इंडेक्स 2026 की रिपोर्ट ने इसी दबे हुए सच को सामने रखा है।देशभर के विद्यार्थियों, शिक्षकों, अभिभावकों और स्कूल-इकोसिस्टम से जुड़े लोगों से बातचीत के बाद यह स्पष्ट हुआ कि कक्षा में बैठा हर दूसरा बच्चा रोज़ तनाव में जी रहा है। रिपोर्ट बताती है कि प्रतिदिन 63 प्रतिशत विद्यार्थी तनाव का अनुभव करते हैं। यह कोई क्षणिक बेचैनी नहीं, बल्कि लगातार साथ चलने वाली चिंता है। कक्षाओं में अब प्रश्न बदल रहे हैं,विषय और पाठ्यक्रम से जुड़े सवाल कम हो रहे हैं, चिंता, थकान, डर और असफलता के भय से जुड़े सवाल बढ़ रहे हैं। यह परिवर्तन केवल भाषा का नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति का संकेत है। बच्चे अब पढ़ाई से पहले अपने मन का बोझ उतारना चाहते हैं। दिलचस्प यह है कि इसी रिपोर्ट का दूसरा पहलू उम्मीद जगाता है। तनाव के बीच विद्यार्थी इन मुद्दों पर खुलकर बातचीत भी करने लगे हैं। मानसिक स्वास्थ्य अब वर्जित विषय नहीं रहा। शिक्षक भी पहले से अधिक संवेदनशील होकर सुनने, समझने और संभालने की कोशिश कर रहे हैं। बदलते हालातों में कक्षा का शिक्षक ही वह पहला कंधा बनता दिख रहा है, जिस पर बच्चा सिर रखकर कह सके,आज मैं ठीक नहीं हूँ। फिर भी तस्वीर पूरी तरह उजली नहीं है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि शिक्षक विद्यार्थियों के तनाव को पहचान तो लेते हैं, पर अक्सर उनके जवाब समस्या को नजरअंदाज करने वाले होते हैं। पाठ्यक्रम और पढ़ाने के तरीके भी दबाव को बढ़ाते हैं। कम समय में अधिक सीखने की होड़, लगातार आकलन, और परिणाम-केंद्रित सोच बच्चों को यह संदेश देती है कि उनकी कीमत उनके अंक हैं। जब सीखने से ज़्यादा सफलता पर ज़ोर हो, तो असफलता का डर स्वाभाविक है। यही डर कई बार आत्मविश्वास को चुपचाप खा जाता है। तनाव के कारणों में अभिभावकों की अपेक्षाएँ सबसे आगे हैं। लगभग 42 प्रतिशत विद्यार्थी महसूस करते हैं कि उनसे उम्मीदें इतनी अधिक हैं कि वे साँस नहीं ले पाते। पढ़ाई के साथ अतिरिक्त गतिविधियों का बोझ अलग है। स्कूल के बाद कोचिंग, कोचिंग के बाद प्रैक्टिस, और बीच-बीच में टेस्ट—बच्चे का दिन एक दौड़ बन जाता है, जिसमें ठहराव का कोई स्टेशन नहीं। 43 प्रतिशत विद्यार्थी सामाजिक मुद्दों या करियर की अनिश्चितता के कारण तनाव झेलते हैं। 18 प्रतिशत प्रतिस्पर्धा के कारण तनाव में रहते हैं। और 66 प्रतिशत बच्चे दबाव और चिंता की शिकायत लेकर शिक्षक तक पहुँचते हैं। ये आँकड़े केवल संख्या नहीं, बल्कि हर घर और हर कक्षा की कहानी हैं। इस कहानी में सोशल मीडिया ने तनाव को एक नया आयाम दिया है। आभासी दुनिया ने अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को एक अलग मुकाम पर पहुँचा दिया है। इंस्टाग्राम की रील्स, यूट्यूब के परफेक्ट स्टडी रूटीन, लिंक्डइन की उपलब्धियों की परेड सब मिलकर तुलना की ऐसी मशीन बना देते हैं, जो रोज़ बच्चे के मन में सवाल उछालती है।मैं पीछे क्यों हूँ?यह तुलना केवल अंकों की नहीं, जीवन की गति की हो जाती है। कोई कम उम्र में स्टार्टअप शुरू कर रहा है, कोई विदेशी विश्वविद्यालय में प्रवेश पा रहा है और बच्चा अपने कमरे में बैठा खुद को कमतर आँकने लगता है। यही वह क्षण है, जब मुस्कान चेहरे पर रह जाती है और भीतर हर पल डर जागता है। समसामयिक उदाहरण हमारे आसपास बिखरे हैं। हाल के वर्षों में परीक्षा परिणामों के बाद बढ़ती आत्महत्या की खबरें, कोचिंग हब्स में बच्चों की टूटती हिम्मत, और सोशल मीडिया पर वायरल होती टॉपर लाइफ की कहानियाँ ये सब एक ही सच की अलग-अलग परछाइयाँ हैं। कोविड के बाद ऑनलाइन शिक्षा ने तकनीक का दरवाज़ा खोला, पर साथ ही स्क्रीन-थकान और अकेलेपन को भी बढ़ाया। बच्चे एआई टूल्स का इस्तेमाल पढ़ाई में करने लगे हैं, पर संस्थागत मदद अब भी पीछे है। रिपोर्ट कहती है कि इस मामले में विद्यार्थी आगे हैं और स्कूल पीछे। अभिभावक भी मानते हैं कि तकनीकी बदलाव में स्कूलों की रफ्तार धीमी है। तकनीक यदि सहारा बने तो सीखने को आसान कर सकती है, पर बिना दिशा के वही तकनीक दबाव का कारण बन जाती है। इन सबके बीच एक बुनियादी सवाल उठता है।क्या शिक्षा का उद्देश्य केवल पेट भरने की योग्यता देना है? बच्चे से पूछें कि वह विद्यालय क्यों आता है, तो उत्तर मिलेगा पढ़ने के लिए। पढ़कर क्या करेगा?नौकरी। नौकरी क्यों जीवन-यापन। यह सीधी रेखा हमें कहीं न कहीं यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम मानव को मानव बनाने का लक्ष्य भूलते जा रहे हैं। विद्यालयों में विज्ञान, गणित और भूगोल पर जोर है, पर नैतिकता, करुणा और आत्म-संतुलन की शिक्षा हाशिये पर है। भारी बस्ते ज्ञान का प्रतीक बन गए हैं, पर हल्का मन दुर्लभ होता जा रहा है। यहीं संस्कारों की बात सामने आती है। संस्कार केवल परंपरा नहीं, जीवन को संभालने की कला हैं। बचपन में माता-पिता द्वारा, विशेषकर माँ द्वारा डाले गए संस्कार इतने अमिट होते हैं कि जीवन-पर्यन्त साथ देते हैं। इतिहास गवाह है।ध्रुव को अमर बनाने में माता सुनीति के संस्कार थे, शिवाजी के शौर्य में जीजाबाई की शिक्षा। महात्मा गांधी इंग्लैंड के भोग-विलासी वातावरण में भी अपने मूल्यों से डिगे नहीं, क्योंकि माँ ने धर्म और अहिंसा के बीज बचपन में ही बो दिए थे। आज जब बच्चे बाहरी दबावों से घिरे हैं, तब घर का वातावरण उनका पहला सुरक्षित किला बन सकता है। माँ की भूमिका यहाँ केवल भावनात्मक नहीं, नैतिक भी है। विनम्रता और निरहंकारिता जैसे गुण सिखाए बिना शिक्षा अधूरी रह जाती है। वह कथा याद आती है, जिसमें एक माँ अपने उच्च पदस्थ बेटे के अहंकार पर उसे आईना दिखाती है। यह आईना आज के संदर्भ में और भी जरूरी है। सफलता यदि विनय से खाली हो, तो वह फिसलन बन जाती है। बच्चे साफ स्लेट की तरह होते हैं। उन पर जो लिखा जाए, वही गहरा उतरता है। विद्यालयों का दायित्व है कि वे इस स्लेट पर मानवता का आलेख लिखें, केवल अंकों का हिसाब नहीं। शिक्षा संस्कारों की जननी है। माँ द्वारा बोए गए बीज शिक्षा के माध्यम से फलते-फूलते हैं। पर आज विद्यालय बच्चों को सभ्य तो बनाते हैं, सुसंस्कृत कम। सभ्यता और संस्कृति का अंतर यहीं है। संस्कृति अनुभव और करुणा से आती है। पुराने गुरुकुलों में राजा को भूख का अनुभव कराया जाता था, ताकि वह प्रजा की पीड़ा समझ सके। आज के शासक यानी भविष्य के नागरिक यदि तनाव और असुरक्षा में बड़े होंगे, तो वे संवेदनशील कैसे बनेंगे? समाधान किसी एक पक्ष के हाथ में नहीं। अभिभावकों को तुलना और अनावश्यक दबाव से बचना होगा। शिक्षक को पाठ के साथ-साथ मन पढ़ना होगा। स्कूलों को तकनीक को सहायक बनाना होगा, प्रतिस्थापक नहीं। और समाज को यह स्वीकार करना होगा कि सफलता का पैमाना केवल अच्छे अंक नहीं, बल्कि जीवन में उपयोगी सीख भी है। संवाद, खेल और रचनात्मक गतिविधियाँ तनाव का प्राकृतिक प्रतिरोध हैं। सोशल मीडिया से दूरी और वास्तविक रिश्तों की निकटता बच्चों को संतुलन सिखाती है। आज की कक्षा में यदि किताबें खुली हैं, तो मन भी खुलना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य डर पैदा करना नहीं, दिशा देना है। जब बच्चा यह महसूस करेगा कि वह सुना जा रहा है, समझा जा रहा है, तब उसकी मुस्कान केवल चेहरे पर नहीं, भीतर भी लौट आएगी। और शायद तभी हम कह सकेंगे कि हमने केवल पढ़ाया नहीं, मनुष्यता के संस्कार भी दिए है। (L103 जलवंत टाऊनशिप पूणा बॉम्बे मार्केट रोड, नियर नन्दालय हवेली सूरत मो 99749 40324 वरिष्ठ पत्रकार, साहित्य्कार, स्तम्भकार) ईएमएस / 30 दिसम्बर 25