शासन की आत्मालोचना से सुशासन तक-रेवड़ी संस्कृति, लक्षित कल्याण और जवाबदेह राज्य की वैश्विक कसौटी-एक समग्र वैश्विक विश्लेषण राहत या राजनीति?- क्या सरकारी राहत वास्तव में पात्रों तक पहुँच रही है?या राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में व्यवस्था खोखली हो रही है? रेवड़ियाँ व राहतें उनके वास्तविक हकदारों क़े साथ व्यवस्था की खामियों से अपात्र वर्ग बड़े पैमाने पर उठा रहा है,जो सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग व शासन की नैतिकता और वित्तीय स्थिरता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है वैश्विक स्तरपर नव वर्ष 2026 केवल कैलेंडर का परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह केंद्र और राज्य सरकारों के लिए आत्मविश्लेषण,आत्मस्वीकार और आत्मसुधार का ऐतिहासिक अवसर भी है। लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है सत्ता में रहते हुए अपनी कमियों, खामियों और नीतिगत असंतुलनों को स्वीकारकर उन्हें सुधारने का संकल्प,आज भारत ही नहीं, बल्कि विश्व केअधिकांश लोकतांत्रिक देश इसी प्रश्न से जूझ रहे हैं कि क्या उनकी सरकारें वास्तविक जरूरतमंदों तक सहायता पहुंचाने में सफल हो पा रही हैं या नहीं।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं क़ि वर्तमान प्रतिस्पर्धी राजनीतिक युग में सरकारों और राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त या रियायती सुविधाएँ, नकद हस्तांतरण सब्सिडी, और विशेष छूटें लोकतांत्रिक विमर्श का केन्द्रीय विषय बन चुकी हैं।चुनावी लोकतंत्र में राहत योजनाएँ अबकेवल सामाजिक न्याय का औज़ार नहीं रहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का प्रभावी हथियार बन गई हैं। भारत ही नहीं, विश्व के अनेक लोकतांत्रिक देशों में यह प्रश्न गंभीरता से उठ रहा है कि क्या ये राहतें वास्तव में उनके वास्तविक हकदारों तक पहुँच पा रही हैं या फिर व्यवस्था की खामियों का लाभ अपात्र वर्ग बड़े पैमाने पर उठा रहा है। यह स्थिति न केवल सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग की ओर संकेत करती है, बल्कि शासन की नैतिकता और वित्तीय स्थिरता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है। साथियों बात अगर हम नव वर्ष 2026 में सरकारों को अपनी कमियों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता को समझने की करें तो, लोकतंत्र में सरकारें त्रुटिहीन नहींहोतीं नीति निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक अनेक स्तरों पर खामियां स्वाभाविक हैं, परंतु समस्या तब उत्पन्न होती है जब इन खामियों को स्वीकार करने के बजाय उन्हें राजनीतिक सफलता का आवरण दे दिया जाता है। भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वे योजनाओं की संख्या बढ़ाने केबजाय उनकी गुणवत्ता,पारदर्शिता और प्रभावशीलता पर ध्यान दें।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ओईसीडी देशों स्कैंडिनेवियाई राष्ट्रों और पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में शासन सुधार का मूल मंत्र पालिसी रिव्यु एंड कोर्स करेक्शन रहा है।भारत में भी नव वर्ष 2026 को सरकारों को यह स्वीकार करना होगा कि कई योजनाएं लक्ष्य से भटक चुकी हैं,कई सब्सिडी अपात्रों तक पहुंच रही हैं और कई सेवाओं में असमानता बढ़ रही है।प्रतिस्पर्धी राजनीति और ‘रेवड़ी संस्कृति’ का विस्तार वर्तमान राजनीतिक युग में चुनावी प्रतिस्पर्धा ने लोक कल्याण को लोकलुभावन वाद में बदल दिया है।मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त यात्रा, नकद हस्तांतरण और विविध प्रकार की रियायतें- इनका उद्देश्य सामाजिक सुरक्षा कम और राजनीतिक लाभ अधिक प्रतीत होने लगा है।अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताता है कि लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण एशिया के कई देशों में पॉपुलिस्ट वेलफेयर ने दीर्घकालिक आर्थिक असंतुलन पैदा किया है। भारत में भी यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक है कि क्या मुफ्त सुविधाएं वास्तव में उन लोगों तक पहुंच रही हैं जिनके लिए वे बनाई गई थीं, या फिर मध्यम और उच्च वर्ग भी उनका अनुचित लाभ उठा रहा है। साथियों बात अगर हम हकदार बनाम अपात्र: कल्याण योजनाओं की सबसे बड़ी चुनौती इसको समझने की करें तो, सरकारी योजनाओं का मूल सिद्धांत टारगेटड डिलीवरी होता है, परंतु व्यवहार में यह सिद्धांत कमजोर पड़ता दिख रहा है। अनेक रिपोर्ट्स और सामाजिक ऑडिट यह संकेत देते हैं कि अपात्र लोग अनेक सरकारी रियायतों का लाभ उठा रहे हैं, जबकि वास्तविक जरूरतमंद या तो वंचित रह जाते हैं या आंशिक लाभ ही प्राप्त कर पाते हैं।यह स्थिति न केवल संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि सामाजिक न्याय के सिद्धांत का भी उल्लंघन है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वर्ल्ड बैंक और आईएमफ ने बार-बार कहा है कि लीकेज इन वेलफेयर स्कीमस विकासशील देशों की सबसे बड़ी समस्या है, और भारत इससे अछूता नहीं है।बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन,ये सेवाएं किसी भी आधुनिक राज्य की रीढ़ होती हैं। भारत में सरकारें इन सेवाओं में राहत देने का दावा करती हैं,परंतु जमीनी हकीकत यह है कि शहरी -ग्रामीण,अमीर-गरीब और संगठित -असंगठित वर्गों के बीच असमानता बनी हुई है।अंतरराष्ट्रीय तुलना में देखें तो यूरोप में यूनिवर्सल बेसिक सर्विसेज का मॉडल अपनाया गया है, जहां सेवाएं सस्ती हैं पर मुफ्त नहीं। भारत में मुफ्त सेवाओं की घोषणा तो होती है, लेकिन गुणवत्ता, निरंतरता और समान पहुंच सुनिश्चित नहीं हो पाती। साथियों बात अगर हम अपात्र लाभार्थियों द्वारा सरकारी सेवाओं का दुरुपयोग:ऑडिट की अनिवार्यता इसको समझने की करें तो,नव वर्ष 2026 में सबसे तात्कालिक आवश्यकता है, सार्वजनिक योजनाओं और सेवाओं का व्यापक, निष्पक्ष और तकनीक-आधारित ऑडिट। अनेक अपात्र लोग एक साथ कई योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं -यह स्थिति न केवल वित्तीय नुकसान पहुंचाती है,बल्कि जनता के विश्वास को भी कमजोर करती है।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोशल ऑडिट आउटकम ऑडिट और परफॉरमेंस रिव्यु को शासन सुधार का अनिवार्य हिस्सा माना जाता है।भारत में भी कैग,राज्य लेखा परीक्षक और स्वतंत्र संस्थाओं को और अधिक सशक्त बनाना होगा।रेलवे सहित अनेक सरकारी विभागों में कर्मचारियों को उनके सेवा क्षेत्र में मुफ्त या बिना टिकट सुविधाएं दी जाती हैं। यह व्यवस्था ऐतिहासिक और सेवा -शर्तों का हिस्सा रही है, परंतु बदलते समय में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ये सुविधाएं आज भी न्यायसंगत हैं?जब एक आम नागरिक हर सेवा के लिए भुगतान करता है, तब सरकारी कर्मचारियों को असीमित मुफ्त सेवाएं देना सामाजिक असंतुलन को जन्म देता है। कई विकसित देशों में सरकारी कर्मचारियों को वेतन तो प्रतिस्पर्धी दिया जाता है, परंतु मुफ्त सार्वजनिक सेवाओं की परंपरा सीमित है। साथियों बात अगर हम मुफ्त सुविधाएं बनाम जवाबदेह राज्य :वैश्विक दृष्टिकोण को समझने की करें तो विश्व के सफल लोकतंत्रों ने यह सिद्ध किया है कि मुफ्त सुविधाएं स्थायी समाधान नहीं हैं।जर्मनी, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में यूजर पेस प्रिंसिपल को सामाजिक सुरक्षा के साथ संतुलित किया गया है। भारत को भी इसी दिशा में सोचने की आवश्यकता है।नव वर्ष 2026 में यह तय करना होगा कि क्या हम एक ऐसा राज्य चाहते हैं जो अल्पकालिक लोकप्रियता के लिए संसाधन बांटे, या एक ऐसा राज्य जो दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता और जिम्मेदार नागरिकता को बढ़ावा दे।..भारत के पास आज आधार, डीबीटी, और डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना जैसी मजबूत प्रणालियां हैं। इसके बावजूद यदि अपात्र लाभार्थी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं, तो यह प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी को दर्शाता है।अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताता है कि डेटा इंटेग्रेशन और रियल - टाइम मॉनिटरिंग से कल्याण योजनाओं की प्रभावशीलता कई गुना बढ़ाई जा सकती है। नव वर्ष 2026 को सरकारों को इस दिशा में निर्णायक कदम उठाने होंगे। साथियों बात अगर हम राजनीतिक दलों की भूमिका : आत्मसंयम और नीति-आधारित राजनीति को समझने की करें तो, केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों को भी यह समझना होगा कि रेवड़ी संस्कृति लोकतंत्र को कमजोर करती है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत एक जिम्मेदार लोकतंत्र के रूप में उभर रहा है, ऐसे में आंतरिक नीति-निर्माण में भी उसी परिपक्वता की आवश्यकता है।चुनाव घोषणापत्रों में मुफ्त सुविधाओं के बजाय शिक्षा, कौशल, स्वास्थ्य और रोजगार सृजन जैसे ठोस एजेंडे होने चाहिए। अतः अगर हम अपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि नव वर्ष 2026 - आत्मावलोकन से सुधार तक,नव वर्ष 2026 भारत के लिए केवल विकास का नहीं, बल्कि शासन की गुणवत्ता सुधारने का वर्ष होना चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी कमियों को स्वीकार कर, रेवड़ी संस्कृति पर पुनर्विचार कर, अपात्र लाभार्थियों पर लगाम लगाकर और शासकीय विशेषाधिकारों की समीक्षा कर एक संतुलित, न्यायसंगत और जवाबदेह शासन मॉडल की ओर बढ़ना होगा।यही वह मार्ग है जो भारत को न केवल एक मजबूत अर्थव्यवस्था, बल्कि एक वैश्विक स्तर पर आदर्श लोकतंत्र बना सकता है। (लेखक - क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) ईएमएस/31/12/2025