पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित तारापीठ एक ऐसे शक्तिपीठ के रूप में खड़ा है, जो केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि एक रहस्यमय दुनिया है, जहां शक्ति, भक्ति और तंत्र साधना की शक्तियाँ मिलती हैं। तारापीठ का नाम प्रमुख शक्तिपीठों में है।सती माता के शरीर के विभिन्न अंगों का पृथ्वी पर गिरना, जिससे 51 शक्तिपीठों की स्थापना हुई। लेकिन तारापीठ की कथा तो कुछ और ही है। जब सती माता ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह किया, तो शिव भगवान उनके शव को लेकर तांडव करते हुए ब्रह्मांड की रक्षा में लीन हो गए। सती के शरीर के अंगों को काटने के लिए विष्णु ने सुदर्शन चक्र का उपयोग किया, और इन अंगों में से एक अंग, सती की आँख की पुतली, तारापीठ में गिरा। और यहीं से इस स्थान का नाम “तारापीठ” पड़ा। इस पवित्र स्थल ने एक शक्तिपीठ के रूप में अपनी पहचान बनाई, जो न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि तांत्रिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। तारापीठ मंदिर की वास्तुकला में छिपी है एक गहरी रहस्यात्मकता। लाल ईंटों से बनी मोटी दीवारें, जिनमें दरवाजों के ऊपर कई मेहराबों वाले ढके हुए रास्ते हैं, जिनसे होते हुए शिखर तक पहुंचते हैं। मंदिर के शिखर पर एक दमदार शिखर है, जो यह संकेत करता है कि यह स्थान एक शक्तिशाली ऊर्जा केंद्र है। इस मंदिर की दीवारों पर जटिल टेराकोटा की कलाकृतियां हैं, जिनमें रामायण और महाभारत की घटनाओं को चित्रित किया गया है। इन चित्रों के बीच एक गहरी तांत्रिक परंपरा भी छिपी हुई है? यह चित्र एक गुप्त संकेत देते हैं, जो केवल तांत्रिक साधकों को समझ में आते हैं। तारापीठ का एक और रहस्यमय पहलू है इसका महाश्मशान, जो तांत्रिक साधना का एक प्रमुख केंद्र माना जाता है। यहाँ के साधक और तांत्रिक रात के अंधेरे में अपने गहरे ध्यान में लीन रहते हैं। अमावस्या की रात में यहां विशेष तांत्रिक अनुष्ठान होते हैं, जो केवल कुछ खास लोगों को ही देखने को मिलते हैं। माना जाता है कि इस महाश्मशान के पास साधना करने से ज्ञान, शक्ति और सिद्धियां प्राप्त होती हैं। यह महाश्मशान सिर्फ तांत्रिक साधकों के लिए ही नहीं, बल्कि आम भक्तों के लिए भी एक अनोखी अनुभूति का स्रोत है। यहां की गहरी शांति और रहस्य वातावरण में छुपी ताकत, श्रद्धालुओं को एक अद्वितीय अनुभव प्रदान करती है। तारापीठ की आध्यात्मिक शक्ति में एक और रहस्य जुड़ा हुआ है, वह है संत वामाखेपा। 19वीं शताब्दी में वामाखेपा ने यहाँ साधना की थी और सिद्धि प्राप्त की। वह एक प्रसिद्ध तांत्रिक संत थे, जिन्होंने तारापीठ के महाश्मशान में दीक्षा ली। कहा जाता है कि उन्होंने यहाँ पर माँ तारा के दर्शन किए थे और उनके अद्वितीय तंत्र को समझा। वामाखेपा का योगदान तारापीठ की महिमा में अप्रतिम था, और उनकी साधना ने इस स्थान को एक और ऊँचाई दी। तारापीठ में पूजा का तरीका भी बहुत विशिष्ट है। प्रातः तीन बजे से ही श्रद्धालु मंदिर में पूजा के लिए जुटने लगते हैं। सबसे पहले देवी तारा को स्नान कराया जाता है, और यह स्नान गुलाब जल, शहद, घी और जावा कुसुम के तेल से किया जाता है। इसके बाद, माँ का श्रृंगार होता है, जिसमें उन्हें राजभूषा, मुकुट, सिंदूर, और बिंदी से सजाया जाता है। पूजा के बाद माँ को विशेष रूप से मिश्री के जल, खीर, दही, मिठाई, और अन्य पांच प्रकार के पकवानों का भोग अर्पित किया जाता है। और फिर, संध्या आरती के साथ पूजा का समापन होता है, जिसमें माँ के रूप में देवी तारा को फूलों से सजाया जाता है। तारापीठ न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह तांत्रिक साधना, रहस्यमय घटनाओं और ऐतिहासिक कथाओं का एक अद्वितीय संगम है। यहाँ के महाश्मशान से लेकर देवी तारा के रूप तक, हर तत्व एक रहस्य है, जिसे केवल श्रद्धा और विश्वास से समझा जा सकता है। इस स्थान में जाने से ना केवल भक्ति मिलती है, बल्कि एक गहरी आध्यात्मिक शक्ति भी अनुभव होती है, जो भक्तों को अपनी ओर खींचती है।तारापीठ का रहस्य और शक्ति आज भी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती है, और यह स्थान सैकड़ों सालों से चमत्कारिक घटनाओं का गवाह बनता रहा है। यह मंदिर न केवल श्रद्धालुओं का बल्कि हर उस व्यक्ति का ध्यान खींचता है, जो रहस्य, शक्ति, और तंत्र की खोज में है। ईएमएस / 21 अक्टूबर 25