सीहोर (ईएमएस)। शिक्षक सिर्फ शिक्षा नहीं देते अपितु उससे भी अधिक मूल्यवान संस्कार देते हैं। शिक्षक व्यक्ति के व्यक्तित्व का ही विकास नहीं करते, वें तो संस्कृति के विकास में सहाय्यभूत ही नहीं आधारभूत होते हैं। संस्कृति सृजन में शिक्षकों का परमोच्च है। उक्त अमृत वाणी मुनिश्री अक्षय सागर जी महाराज ने प्रवचन के दौरान श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए बताया कि हमारे देश में गुरुकुल - संस्कृति थी और उसके माध्यम से असि-- मसि-कृषि - वाणिज्य - कला इनकी यथोक्त तथा उपयुक्त शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में थीं। ज्ञान के साथ चारित्रय निर्माण का बहुमूल्य कार्य गुरुकुलो के माध्यम से हजारों वर्षो से होता रहा है ।भारत के प्रथम शिक्षक ऋषभदेव तथा छात्रा ब्राह्मी और सुंदरी थी। इस तथ्य को हमें भूलना नहीं चाहिए। मुनिश्री ने आगे कहा कि संस्कार ही व्यक्तित्व का मूलभूत आधार है।यह सिद्धांत त्रिकालबाघित वास्तव है। मुनिश्री ने कहा कि वर्तमान में पश्चिमी देशों के बहकावे में आकर शिक्षा को साधन से साध्य बना लिया है। संस्कारो को तिलांजलि दे दी। अंग्रेजी का भूत सिर पर बैठा दिया जिससे हम अपनी संस्कृति छोड़कर भाषा, वेशभूषा, खान-पान सभी बातों में अंग्रेजों का अनुकरण करने लगे और यही हमारे परतंत्र का कारण बना। मुनिश्री ने उदाहरण देते हुए बताया कि इतिहास ग्वाह है कि मैकाले ने कान्वेंट स्कूल शिरु किए और हम बहकते गये। परतंत्र हुए हमने समझ लिया अंग्रेजो ने ज्ञान का भंडार हमें प्रदान किया। परन्तु वस्तु स्थिति ऐसी है कि सन् 1885 में भारत 100 प्रतिशत साक्षर था। जबकि ब्रिटेन में साक्षरता 17 प्रतिशत थी। यह तथ्य मुनिश्री ने इतिहास के अनुसार बताते हुए कहा कि भारत में 7 ,लाख 32 हजार गुरुकुल थे। जबकि ब्रिटेन में सिर्फ 240 स्कूल थे । आज भी हम तन से आजाद हैं लेकिन वर्तमान शिक्षा के आधार पर अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी की अब भी गुलामी की झलक वर्तमान पीढ़ी से गई नहीं । इसलिए लौकिक शिक्षा पद्धति पर गहन विचार मंथन करने की आवश्यकता है। दोपहर में स्वाध्याय धार्मिक शिक्षण कक्षा में श्रद्धालुओ ने ज्ञानार्जन किया। संध्या को गुरु भक्ति संगीत मय महाआरती भजन कीर्तन करते हुए श्रधदालुओ ने प्रभु का स्मरण किया। विमल जैन ईएमएस / दिनांक 26/10/025